मैंने बचपन को
काँच की तरह देखा —
हाथ में था,
पर फिसल गया।

जवानी एक सपना थी,
जिसे मैं नींद में जीता रहा।
हँसी… सिर्फ़ तस्वीरों में थी,
हकीकत में आवाज़ दबा दी गई थी।

जब पापा थे,
दुनिया आसान लगती थी।
मुसीबतें आती थीं,
मगर डर नहीं लगता था।

अब साथ है कोई,
पर दिल खाली है।
रंग थे,
अब सिर्फ़ धुंध है।

मन की बात कहूँ तो किससे?
जब अपने ही शब्द
जैसे तीर बन जाएँ,
तो चुप्पी ही सबसे सच्चा जवाब होती है।

हर दिन,
एक नई पहेली लाता है।
हर रात,
उसका बोझ निगल जाती है।

अंधेरे में कोई नहीं होता —
बस मैं होता हूँ,
और मेरी चीखें,
जो दीवारों से टकराकर लौट आती हैं।

मरहम लगाने वाला ही
ज़ख्म को नासूर बना दे,
तो किससे उम्मीद रखें?

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