निकले थे बेख़ौफ़ आधी रात में,
चल रहे थे बेतकल्लुफ़ी से अपनी ही मस्ती में।
चाँद भी था हमारे ही जैसा,
बेख़बर, आवारा, अपनी ही हस्ती में।

हवा ने सरगोशी की,
रास्तों ने भी कोई फ़ुसफ़ुसाहट की,
पर हमें फ़र्क़ कहाँ पड़ता था,
हम तो अपनी धुन में चले जा रहे थे।

न जाने कहाँ से बेवक़ूफ़ी सामने आ गई,
और अक़्ल की सारी नक़ल उतर गई।
जिन कदमों को लगता था कि ज़मीं अपनी है,
वही थमकर सोचने लगे—अब ये कैसी घनी है?

होशियारी वही की वही रह गई,
हम आगे थे, पर रात वहीं रह गई।
समझ आया, मस्ती अपनी जगह,
पर कभी-कभी सोच भी ज़रूरी है सफ़र में।

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