ध्यान मग्न तपस्वी थे, जब विश्वामित्र महान,
तप की ज्वाला में जलते, बस था ईश्वर ध्यान।

देव लोक तब कांप उठा, देख तप की धार,
इंद्र घबरा उठे, हुआ मन में संदेह अपार।

मेनका को भेज दिया, मोहपाश रचाया,
रूप-गंध, मधुर स्वर से ध्यान हिला डुलाया।

क्षण भर को विचलित हुए, डगमगाई साधना,
पर जब सच का बोध हुआ, जागी फिर वेदना।

क्रोध जला था अंतर में, श्राप उसे दे डाला,
जिससे जिसने खेला था, उसी ने दंड निकाला।

पर अंततः समझ गए, सब विधि का विधान,
मोह-माया छोड़ फिर, बढ़े तप की ओर महान।

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