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Dev Srivastava
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Dev Srivastava
6 ভিতরে

कभी फुरसत मिले तो याद करना अपने इस दीवाने को,
तुम्हें मौत की हद तक चाहने वाले अपने इस परवाने को।
जानता हूँ समय नहीं होगा पास तुम्हारे मेरे लिए पर फिर भी,
एक बार आ जाना अपने हाथों से फूल मेरे मजार पर चढ़ाने को।
~ देव श्रीवास्तव " दिव्यम " ✍️

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Jahnavi Sharma

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Bhavisha Soni

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Dev Srivastava
20 ভিতরে

माँ : शब्द नहीं, संपूर्ण संसार



माँ, दुनिया के लिए एक शब्द और मेरे लिए पूरी दुनिया।
इन्होंने ही मुझे जन्म दिया और दी हैं जहाँ की सारी खुशियां।

निराकार मिट्टी के इस ढेर को साकार था जिसने कर दिया।
वो हैं प्यारी माँ जिसने मेरे लिए, अपना हर सुख छोड़ दिया।

माँ, एक ऐसा शब्द जिसे मैं, पूरी तरह समझ ही ना सकूं।
फिर माँ की ममता की भला, कैसे ही मैं व्याख्या करूं।

जन्म से पहले भी उसने, मांगा था मुझे भगवान से।
मन्नतें की थी उसने कई, था उसकी दुआओं का फल मैं।

कुछ नहीं था वजूद मेरा, अस्तित्व उसने ही दिया है मुझको।
आंखें मुझको उसने ही दीं और रंगों से भी मिलाया मुझको।

मुख भी है उसका दिया हुआ, वाणी भी मेरी उसी से है।
सांसें दी हैं उसने मुझे, और ये जीवन भी मेरा उसी से है।

समाज में रहने की सीख दी, अच्छा बुरा बताया उसने।
ज्ञान मुझे कहाँ था कुछ भी, ज्ञानी मुझे बनाया उसने।

चलते हुए जहाँ भी गिरता, एक वो ही थी सहारा मेरा।
दुआ ही थी उसकी ये कि, जीवन अब ये सफल है मेरा।

जब हवनकुंड में गिरा था मैं, उसने सीने से मुझे लगाया था।
एक ऐसी योद्धा है वो जिसने, मुझे हर मुसीबत से बचाया था।

तबियत मेरी जो बिगड़े कभी भी, जाग कर रात बिता दे वो।
मुझे एक खरोंच भी आ जाए तो, पूरा घर सिर पर उठा ले वो।

माँ वो पहली पाठशाला है, जहाँ जीवन मैंने जीना सीखा।
मेरी पहली गुरु भी हैं वो, जिन्होंने दी है मुझको पहली दीक्षा।

कभी खुद भूखी रह कर उसने, भर पेट खिलाया मुझको।
कभी आंसू अपने पीकर के, मीठी नींद में सुलाया मुझको।

खुद टूटी पर मुझे संभाला, हर बार कुछ नया सिखाया मुझको।
कभी किसी का दिल ना दुखाऊं, ये पाठ भी है पढ़ाया मुझको।

माँ के हाथ की रोटियाँ अब भी, दुनिया के खाने पर भारी हैं।
उसकी लोरी की नींदें आज भी, सबसे प्यारी और न्यारी हैं।

बचपन की हर याद में माँ है, उसकी गोद में हर त्यौहार था।
कभी स्कूल की घबराहट में, उसका चेहरा ही मेरा संसार था।

आज भी कोई चोट लगे तो, याद उसकी ही आती है।
जब वो होती है दूर कहीं तो, उसकी याद बड़ा सताती है।

दूर होकर भी पास है मेरे, ऐसा ही अनोखा प्यार है उसका।
सफल हो रहा हूँ मैं जहाँ भी, ये असर है उसकी दुआओं का।
~ देव श्रीवास्तव " दिव्यम " ✍️

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Dev Srivastava
20 ভিতরে

कहने को खुली किताब हूँ मैं,
तुम्हारे मन के जज़्बात हूँ मैं।
कभी इस दिल में झांक कर तो देखो,
जानोगे कितना बड़ा राज हूँ मैं।

Beyond Words : A Love Born in Silence spoiler 😆

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strenger pen

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kabhi is dil me jhak kr ke to dekho
tumhre ash pas hi hu mai ...
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Dev Srivastava
3 বছর

*_मैं हूँ नारी*


सतयुग का समय था वो, जब मैं थी पूज्यनीय बड़ी।
उपनयन होता था मेरा भी, हर पुरुष की भांति ही।
शिक्षा का अधिकार मुझे था, कंधो से कंधे मिला चलती थी।
अधिकार बहु विवाह का था, पुरुषों के साथ मुझे भी।
हां, मैं हूँ वो नारी जो उस युग में, इतना अधिकार रखती थी।

कोई भी हो निर्णय लेना, मेरा भी मत होता था उसमें।
फिर हुआ ऐसा भी कुछ कि, बदलाव अलग हुआ मेरे जीवन में।
दृष्टि हुई दूषित पुरुष की, और तूफान आया मेरे जीवन में।
पुरुष को कुछ ना कहा गया, परंतु उपनयन से हो गई वंचित मैं।
हां, मैं हूँ वो नारी जो, अशिक्षित रह गई पुरुष के वजह से।

दोष उनका था फिर भी, दोषी मुझे ठहराया गया।
और उसी समय से था, मेरा तिरस्कार शुरू हो गया।
अधिकार पुरुष के पहले जैसे थे, पर मुझ पर पहरा लग गया।
पतिव्रता मुझे होना था, बहु विवाह अब पुरुष का गहना हो गया।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने, ये सब था स्वीकार कर लिया।

खुद पर हुई ज्यादती को भूल मैंने, परिवार को था चुन लिया।
और अब मेरी सीमा रसोईघर, व काम चूल्हा चौका हो गया।
मैं ही सती अनुसुइया जिसका, पतिव्रत इतना विख्यात हो गया।
कि मेरी परीक्षा लेने को, त्रिदेवों को धरती पर आना पड़ गया।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने, त्रिदेवियों को भी था स्तब्ध कर दिया।

मैं वो अहिल्या भी हूँ जिसे, इन्द्र द्वारा था छला गया।
और मेरे पति, गौतम के द्वारा, पत्थर में था ढाला गया।
उनके श्राप को भी मैंने, सहर्ष स्वीकार कर लिया था।
धीरे धीरे युग भी बीते और बीता दीं मैंने सदियां।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने मुक्ति का, इतना इंतेजार किया था।

त्रेतायुग का समय था जब, धरती पर श्री राम थे आए।
पुण्य था फैला चारों ओर, पाप कहीं भी ठीक नहीं पाए।
जब वो आए वन में थे, तब मुझको थे मुक्ति दिलाए।
मुझको दर्शन दे उन्होंने मेरे, जीवन के सारे कष्ट थे मिटाए।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने, हँस कर झेली हैं ये सारी घटनाएं।

मैं ही हूँ वो शांता जो, जन्मी थी दो पुरुषों के मिलन से।
दो राज्यों की थी राजकुमारी पर, कहीं भी ना रह सकी मैं।
अपने भाइयों के जन्म के लिए, ऐसे पुरुष के साथ बंधी मैं।
जिसने किसी स्त्री को कभी, नहीं देखा था पूरे जीवन में।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने, सब त्याग दिया था अपने जीवन से।

मैं ही वो सीता हूँ जिसने, जन्म लिया मिथिला की भूमि से।
रावण के किए पापों का थी, एक अंतिम परिणाम मैं।
जनक के हाथों संसार में आई, तब जानकी कहलाई मैं।
स्वयंवर हुआ मेरा तो मेरे, आर्य संग अयोध्या आई मैं।
हां, मैं हूँ वो नारी जो, दो कुलों को आई थी जोड़ने।

पतिव्रत का पालन किया था मैंने, अपने ससुराल में आते ही।
राजसुख को छोड़ वनवास चुना था, अपने पति के साथ ही।
अपहरण किया रावण ने मेरा, किंतु मैं सदा पतिव्रता रही।
बंदी रही मैं लंका में पर, अपना विश्वास डिगने दिया नहीं।
हां, मैं हूँ वो नारी जो, पति से दूर रह कर भी उनमें ही समाई थी।

जब आए थे मेरे स्वामी मुझे लेने, रावण का वध करके।
मैं थी उनके पास आई तब, अग्नि परीक्षा पार करके।
फिर भी जब सिंहासन पर बैठी, स्वामी के साथ मैं अपने।
तब इसी समाज ने जाने, कितने ही लांछन लगाए थे मुझपे।
हां, मैं हूँ वो नारी जो इसके बाद भी, चरित्रहीन रही समाज में।

चुप रही इस सबके बाद भी, अपनी प्रजा के खातिर मैं।
छोड़ दिया अयोध्या और, आश्रम थी चली गई मैं।
जब मेरे पुत्र अयोध्या आएं, तो प्रमाण उनसे भी मांगे गए।
और तब जाकर के मैंने, अपने सब्र के बांध थे तोड़े।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने, समाज के ऐसे नियम हैं झेले।

मैं ही हूँ वो उर्मिला जिसने किया था, सीता से कम त्याग नहीं।
दीदी तो रहीं अपने स्वामी संग, पर मैं सौमित्र के साथ नहीं।
उनसे मिलन की खातिर मैंने, 14 वर्ष की प्रतीक्षा थी पूरी की।
और इस बीच मैं अपने आंसू रोक, सबकी सेवा करती रही।
हां, मैं हूँ वो नारी युग बदलने के साथ ही, निम्न स्तरीय होती गई।

मैं ही हूँ वो राधा भी, कृष्ण से प्रेम किया था जिसने।
विवाह हुआ अयन से मेरा, पर प्रेम सदा रहा कृष्ण से।
जीवन अपना सौंपा कृष्ण को, उनकी होकर ही रह गई मैं।
पूरा जीवन कलंकित था मेरा, और मुस्काती रह गई मैं।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने, इतना प्रेम था किया कृष्ण से।

मैं ही हूँ वो द्रौपदी जिसे, अग्नि से था उत्पन्न किया गया।
इच्छा भी न पूछी मेरी और मुझे, 5 पांडवों में था बांटा गया।
कुल वधु मैं कुरु वंश की जिसे, दांव पर था लगाया गया।
रजस्वला थी मैं जिसे, उसके केशों से था घसीटा गया।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसे, एक तुच्छ वस्तु था समझा गया।

अपने ही देवरों के हाथों, बीच सभा में अपमानित किया गया।
कुल के सभी बड़ों के सामने, मेरा चीर था हरा गया।
पति भी सारे चुप थे मेरे, हर कोई जब खामोश रहा।
उस समय बस कृष्ण ही थें, जिनका मुझ पर हाथ रहा।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने, इतना सब उनके भरोसे था सहा।

मैं ही हूँ वो कुन्ती जिसने, कर्ण को पुत्र रूप में पाया था।
किंतु समाज के डर से, उसको मैंने ठुकराया था।
इसके बाद मेरा विवाह कुरु वंश के, पांडु से किया गया था।
किंतु मुझे उन्हें भी माद्री के साथ, बांटना पड़ गया था।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने, ऐसा कठोर निर्णय भी लिया था।

मैं ही हूँ वो गांधारी जिसने, धृतराष्ट्र से विवाह किया था।
अपने पति के खातिर सदा के लिए, अंधकार को चुन लिया था।
कुरु वंश के लिए मैंने, 100 पुत्रों को जन्म दिया था।
और धर्म की खातिर उन सबको, एक युद्ध में खो दिया था।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने, रानी होकर कोई सुख नहीं देखा था।

मैं ही हूँ वो हिडिंबा जिसने, धर्म का साथ दिया था।
गलती मेरे भाई की थी तो, उसकी मृत्यु को स्वीकार किया था।
भीम से विवाह हुआ मेरा, घटोत्कच हमारा पुत्र हुआ था।
और मेरा अपने पति के साथ, समय अब समाप्त हुआ था।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने, हँस कर उनको अलविदा कहा था।

मैं ही हूँ वो अम्बा जिसका, भीष्म ने था अपहरण कर लिया।
अपने स्वार्थपूर्ति के लिए, मेरे प्रेम से मुझको वंचित कर दिया।
और इस सबके बाद भी, मुझसे विवाह नहीं किया।
इसलिए मैंने जीवन का एकमात्र लक्ष्य, उसे मारना बना लिया।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने भीष्म को मारने, दुबारा जन्म था लिया।

मैं ही हूँ वो उत्तरा जो, आखिरी कुल वधु थी कुरु वंश की।
अर्जुन की पुत्री समान मैं, अभिमन्यु की पत्नी थी।
गर्भवती थी मैं जब मेरी, पूरी दुनिया उजड़ गई थी।
पिता भाई भी मृत थे मेरे, पति की अर्थी सामने पड़ी थी।
हां, मैं हूँ वो नारी जो अंत में, सबके मन की उम्मीद बनी थी।

भारत वर्ष का कुल बीज मेरे, कोख में था पल रहा।
किंतु अभी से वो किसी की, दृष्टि में था खटक रहा।
जन्म से ही पहले उसे मारने, वार था उस पर किया गया।
मेरे जीवन के दीपक को बुझाने, का प्रयास था किया गया।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने महाभारत में, अपना सर्वस्व खो दिया।

मैं ही हूँ वो मीरा जिसने इस कलियुग में, कृष्ण से था प्रेम किया।
और मेरा ये आलौकिक प्रेम, समाज को अत्यंत चुभ गया।
मेरी इच्छा के विरुद्ध था मेरा विवाह, किसी और से किया गया।
फिर भी ना मानी मैं तो, विष भी था मुझको दिया गया।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने, हँस कर था वो विष भी पिया।

मैं ही हूँ वो लक्ष्मी बाई जिसके, पति को छल से था मारा गया।
अबला जान कर मुझको, राज्य मेरा था हथियाना चाहा गया।
नहीं मानी मैं तो मुझको, बलपूर्वक रोकना चाहा गया।
अपने राज्य को बचाने मैंने, पूरी सेना से युद्ध किया था।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने, देश के लिए खुद को समाप्त किया था।

मैं ही हूँ वो निर्भया जो, घर अपने जा रही थी।
लेकिन क्या पता था मुझे कि, किसी की नजर मुझ पर पड़ी थी।
चलती बस में ही मेरी, जिंदगी तब तबाह हुई थी।
घर जाना था मुझको पर, अस्पताल मैं लाई गई थी।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसे इंसाफ मिलने में, इतनी देरी हुई थी।

मैं ही हूँ वो प्रियंका जिसकी, किसी से कोई दुश्मनी नहीं थी।
काम करती थी बस अपना, किसी से बैर नहीं रखती थी।
जान बूझ कर रोका मुझको, मेरी ऐसी हालत की थी।
आत्मा तो छलनी हुई ही मेरी, शरीर से भी जल गई थी।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसकी, हालत ऐसी की गई थी।

मैं ही हूँ वो म़ौमिता जो, बनी थी डॉक्टर एक।
सोचा था इस तरह से, काम करूंगी मैं नेक।
फिर आई एक रात ऐसी, मेरे जीवन में भी एक।
जिस रात किसी निर्दयी का, खो गया था विवेक।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसके, हैं टूटे सपने अनेक।

ड्रग्स दिए मुझको और, काबू मुझ पर किया था।
उस रात उसने मेरी इज्जत को, तार तार किया था।
इंसान की क्या ही बिसात, उसने मुझे जानवर भी न समझा था।
इतने से भी उसका मन ना भरा था, मार भी मुझको दिया था।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसने, किसी और के चलते जीवन हारा था।

काश कोई ऐसी दुनिया होती, जहां कोई स्त्री ही न होती।
तब पुरुष जात ये सोच पाता, कि स्त्री होती तो क्या बात होती।
पुरुष वर्ग भी मूर्ख है कितना, ताकतवर है समझे खुद को ही।
अपने बाहुबल के आगे, तुच्छ है समझे नारी को ही।
हां, मैं हूँ वो नारी जो, ऐसे पुरुष को जन्म है देती।

जीवन शुरू हुआ है उसका, गर्भ में ही किसी नारी के।
पाल पोस कर बढ़ा भी किया है, उसको किसी नारी ने।
शादी भी होती उसकी, अंत में एक नारी से।
जो जीवन के हर सुख दुख में, सदा ही उसकी साथी रहे।
हां, मैं हूँ वो नारी जो, सदा पुरुष के साथ खड़ी रहे।

पूरे नारी वर्ग से ही, जीवन उसका घिरा सदा घिरा रहे।
फिर भी वो मूर्ख समझ नहीं पाता, कि नारी कितनी अनमोल है।
अरे आज नहीं कोई रावण, और ना ही दुर्योधन है।
फिर नारी का इस समाज में, हाल ऐसा क्यों है!
हां, मैं हूँ वो नारी जो, आज ये सारे सवाल है पूछे।

कब बदलेगी स्थिति मेरी, कब बदलेंगे ये हालात!
लगता है ये होगा तभी, जब सच होगी किसी की कही ये बात।
कि जब नारी के मन की बात, लिखी जाएगी पुरुष के हाथ।
तब जाकर इस समाज में, शायद बदलें उनके हालात।
हां, मैं हूँ वो नारी जिसे, सत्य लगती है ये बात।

सिर्फ यही नहीं, मुझे भी कुछ बड़ा अब करना होगा।
मैं ही हार गई जो तो, भला कौन मेरे साथ खड़ा होगा।
उमा सी सौम्यता है मुझमें तो, काली भी मुझको बनना होगा।
लक्ष्मी हूँ जो गर मैं तो, दुर्गा भी मुझको बनना होगा।
हां, मैं हूँ वो नारी, जिसे अब ये करना और करना ही होगा।

देव श्रीवास्तव " दिव्यम " ✍️

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